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भारत में इकनोमिक स्लोडाउन (मंदी) के क्या कारण है?

भारत में इकनोमिक स्लोडाउन (मंदी) के क्या कारण है?

यह बात तो अब साफ जाहिर है कि भारतीय अर्थव्यवस्था इकनोमिक स्लोडाउन (मंदी) की तरफ बढ़ रही है। इसी विषय पर है हमारा आज का लेख ki भारत में इकनोमिक स्लोडाउन (मंदी) के क्या कारण है?

यह भी चर्चा शुरू हो गई है कि यह मंदी सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अधिकतर देशों में आ चुकी है।

दुनिया के कई देशों में आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती के स्पष्ट संकेत दिख रहे हैं। जब आर्थिक गतिविधियों में चौतरफा गिरावट आती है, तो यह समझा जाता है कि यह मंदी का दौर है।

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इसके ऐसे कई दूसरे पैमाने भी हैं, जो अर्थव्यवस्था के मंदी की तरफ बढ़ने का संकेत देते हैं।

दुनिया में सबसे पहले आर्थिक मंदी साल 1930 के समय आयी थी जिसे ग्रेट डिप्रेशन (Great Depression) भी कहा जाता है। इसके बाद आर्थिक मंदी ने साल 2007-2009 में पूरी दुनिया में हाहाकार मचाया था, जिसके कारण कई कंपनियाँ बंद हो गयी थी।

उस वक्त भारत में इस मंदी का शायद उतना प्रभाव नहीं पड़ा था, क्योंकि हम उस वक़्त घरेलु मांग के कारण उस ग्लोबल स्लोडाउन से शायद अछूते रह गए थे। लेकिन अब यह बिल्कुल तय है कि हमारी अर्थव्यवस्था इकनोमिक स्लोडाउन के घेरे में आ गयी है।

सरकार ने स्टेप्स उठाये है, उससे कम-से-कम हम यह तो मान ही सकते है। तो अब देखते है कि भारत में इकनोमिक स्लोडाउन (मंदी) के क्या कारण है:

1. देश की आर्थिक विकास दर (जीडीपी) का लगातार गिरना

जीडीपी का बढ़ना-घटना किसी भी देश अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ होता है। जीडीपी यह एक सूचकांक है, जिससे उस देश की अर्थव्यवस्था को नापा जाता है।

अगर किसी अर्थव्यवस्था की विकास दर या जीडीपी तिमाही-दर-तिमाही लगातार घट रही है, तो इसे आर्थिक मंदी का बड़ा संकेत माना जाता है।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को अलग-अलग क्षेत्र में बांटा जाता है और यह देखा जाता है कि उस क्षेत्र में बढ़ोतरी हो रही है और किसप्रकार से हो रही है।

किसी देश की अर्थव्यवस्था या किसी खास क्षेत्र के उत्पादन में बढ़ोतरी की दर को विकास दर कहा जाता है। अगर उस क्षेत्र का विकास हो रहा है, इसका मतलब उस देश की अर्थव्यवस्था या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ रही है और अगर कम हो रहा है, तो जीडीपी घट रही है, ऐसा माना जाता है।

जीडीपी एक निर्धारित अवधि में किसी देश में बने सभी उत्पादों और सेवाओं के मूल्य का जोड़ है। यह आकड़े दर तिमाही में जारी किये जाते है। हालाँकि, हर तिमाही में जीडीपी में बढ़ना-घटना आम बात है, लेकिन अगर घटना लगातार हुआ तो चिंताजनक होता है।

अगर हम अपने देश के परीपेक्ष मे देखते है तो भारत में अप्रैल-जून 2019 के तिमाही में भारत की जीडीपी दर पूर्व की 5. 8 फीसदी से घटकर 5 फीसदी पर आ गई है।

कृषि विकास दर ऐतिहासिक गिरावट के साथ 2 फीसदी पर पहुंच चुकी है। पहले यह 5 फीसदी से अधिक थी। मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर महज 0. 6 फीसदी की दर से बढ़ रहा है जो वर्ष 2018 की इसी तिमाही में 12. 1 फीसदी की दर से बढ़ रहा था।

2. देश के औद्योगिक उत्पादन में गिरावट

किसी भी देश की नब्ज को बताता है उस देश का औद्योगिक उत्पादन और इसमें प्रमुख भागीदारी होती है, निजी क्षेत्र की।

यदि अर्थव्यवस्था में उद्योग का पहिया रुकेगा तो नए उत्पाद नहीं बनेंगे। मंदी के दौर में उद्योगों का उत्पादन कम हो जाता।

मिलों और फैक्ट्रियों पर ताले लग जाते हैं, क्योंकि बाज़ार में बिक्री घट जाती है।

यदि बाज़ार में औद्योगिक उत्पादन कम होता है तो कई सेवाएँ भी प्रभावित होती है। इसमें माल ढुलाई, बीमा, गोदाम, वितरण जैसी तमाम सेवाएँ शामिल हैं।

कई कारोबार जैसे टेलिकॉम, टूरिज्म सिर्फ़ सेवा आधारित हैं, मगर व्यापक रूप से बिक्री घटने पर उनका बिजनेस भी प्रभावित होता है।

हमारे देश में टेलीकॉम सेक्टर की बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बंद हो चुकी है, जैसे अनिल अम्बानी के प्रभुत्व वाली रिलायंस टेलीकॉम, टाटा की टाटा इंडिकॉम, Aircel, uninor, Spice आदि।

कुछ बड़ी सरकारी और प्राइवेट कंपनियोंकी हालत भी खस्ता है और यह तो बंद होने के कगार पर है जैसे बीएसएनएल, आईडिया-वोडाफोन आदि।

3. बेरोजगारी

मंदी के दौरान बेरोजगारी बढ़ जाती है। यह स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में मंदी आने पर रोजगार के अवसर घट जाते हैं।

मांग न होने के कारण नए रोजगारोंकी निर्मिति नहीं होती और उत्पादन न होने की वजह से उद्योग बंद हो जाते हैं, बिक्री ठप पड़ जाती है। इसके चलते कंपनियाँ कर्मचारियों की छंटनी करने लगती हैं। इससे अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी बढ़ जाती है।

हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण किया है। याह ऐसी समस्या है जिसके कारण कई समाज मे अनेक समस्याये पैदा होती है जैसे युवाओ में सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा होता है।

घरेलु समस्याएँ निर्माण होती है, चोरी-डकैती, फ्रॉड्स, नशा आदि के मामले बढ़ जाते है।

बेरोजगारी की समस्या का सामना करने के लिए सरकार ने कई योजनाओंको शुरू किया लेकिन उसमे अभी तक पर्याप्त सफलता नहीं मिली है।

4. खपत (कंजम्प्शन) में गिरावट

किसी भी देश की अर्थव्यवथा का एक सबसे महत्त्वपूर्ण पहलु है, खपत।

सामान्यतः यह चीज लोगों के रोजमर्रा की उपयोग की चीजों से जुडी हुई होती है। यह खपत fast moving consumer goods (FMCG) से सीधे जुडी हुई होती है।

मंदी का एक बड़ा संकेत यह है कि लोग खपत यानी कंजम्प्शन इस दौरान कम कर देते हैं।

रोजमर्रा के ज़रूरतों की चींजे जैसे बिस्कुट, तेल, साबुन, कपड़ा, धातु जैसी सामान्य चीजों की खपत कम हो जाती है। इससे यह पता चलता है कि लोग उनके ज़रूरत की चीजों पर खर्च को भी काबू में करने का प्रयास कर रहे है, मतलब उनके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है।

मंदी जानने के लिए सबसे पहले ऑटोमोबाइल सेक्टर को पढ़ा जाता है। जब ऑटोमोबाइल सेक्टरमें बड़े स्तर पर नौकरियाँ जाती है, यह स्पष्ट करता है कि हमारी अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में जा चुकी है।

कुछ जानकार वाहनों की बिक्री घटने को मंदी का शुरुआती संकेत मानते हैं। उनका तर्क है कि जब लोगों के पास अतिरिक्त पैसा होता है, तभी वे गाड़ी खरीदना पसंद करते हैं।

यदि गाड़ियों की बिक्री कम हो रही है, इसका अर्थ है कि लोगों के पैसा कम पैसा बच रहा है।

इसके अलावा भारत की सबसे बड़ी बिस्कुट उत्पादक कंपनी, PARLE-G ने यह ऐलान किया है कि वह 10000 तक कर्मचारियोंकी छंटनी कर सकती है क्योंकि उनकी बिक्री और मुनाफा लगातार कम हो रहे है। यह एक स्पष्ट संकेत है, भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी का।

5. बचत और निवेश में कमी

यह देखा गया है कि पिछले 3 साल में लोगों के बचत और निवेश में भरी कमी आयी है।

प्रायः कमाई की रकम से खर्च निकाल दें तो लोगों के पास जो पैसा बचेगा वह बचत के लिए या निवेश में इस्तेमाल होता है।

लोग बैंक के फिक्स्ड डिपॉज़िट्स, म्यूच्यूअल फंड्स स्कीम्स, सोने, या प्रॉपर्टी में पैसे का निवेश करते है।

लोगों द्वारा किया गया निवेश कम हो गया है क्योंकि लोग इस दौरान कम कमाने लगे है और महंगाई भी बढ़ गयी है।

अब लोगों की खरीदने की क्षमता (क्रय शक्ति) घट गयी है और इस कारण वे बचत भी कम कर पाते हैं। इससे अर्थव्यवस्था में पैसे का प्रवाह घट गया है।

आजकल लोगों की कर्ज की मांग घट गयी है। लोग जब कम बचाते है तो वे बैंक या निवेश के अन्य साधनों में भी कम पैसा लगाते है। ऐसे में बैंकों या वित्तीय संस्थानों के पास कर्ज देने के लिए पैसा घट जाता है।

अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए कर्ज की मांग और आपूर्ति, दोनों होना ज़रूरी है। कर्ज की मांग और आपूर्ति, दोनों की ही गिरावट को मंदी का बड़ा संकेत माना जा सकता है। यह एक साइकिल के तरह है, एक चक्क बंद होता है तो दूसरा भी बंद होता है।

मतलब, जब कम बिक्री के चलते औद्योगिक उत्पादन घट रहा है, तो उदमी लोग कर्ज क्यों लेंगे? कर्ज की मांग न होने पर भी कर्ज चक्र प्रभावित होता है।

6. शेयर बाज़ार में गिरावट

शेयर बाज़ार भी एक सूचकांक होता है, जिससे किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन किया जाता है। हालाँकि, बहुत बार यह सही नहीं होता, क्योंकि बाज़ार में बड़ी-बड़ी कम्पनियोंका प्रदर्शन ही पैमाना माना जाता है।

यह देखा गया है कि किसी भी बाज़ार में उन्हीं कंपनियों के शेयर बढ़ते हैं, जिनकी कमाई और मुनाफा लगातार तिमाही-दर-तिमाही बढ़ रहा होता है।

यदि कंपनियों का मार्जिन, मुनाफा और प्रदर्शन लगातार घटता है तो यह मान लिया जाता है कि वह कम्पनिया उनके उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहीं, तो इसे भी आर्थिक मंदी के रूप में ही देखा जाता है और उनके शेयर का मूल्य लगातार गिरता रहता है।

शेयर बाज़ार भी निवेश का एक माध्यम है, जिसमे लोग अपनी पूंजी लगाते है।

अगर लोगों के पास पैसा कम होगा, तो वे बाज़ार में निवेश भी कम कर देंगे। इस वजह से भी शेयरों के दाम गिर सकते हैं।

हमारी अर्थव्यवस्था भले ही मंदी से झुंज रही हो, शेयर बाज़ार लगातार ऊपर जा रहा है। हो सकता है की, इस उम्मीद में की स्थितियाँ भविष्य में दुरुस्त होंगी। लेकिन अगर यह नहीं हुआ तो शायद बाज़ार को हम कुछ सालों के लिए निचे की और भी देख सकते है।

यह बात भी सही है कि आजकल रिटेल निवेशक बाज़ार से नदारद है और सब बाज़ार FII और घरेलु फण्ड हाउसेस के भरोसे ही लगातार सम्भला हुआ है।

किसी भी अर्थव्यवस्था में जब पैसे की कमी होती है तो उसे लिक्विडिटी घटती है, तो इसे भी आर्थिक मंदी का संकेत माना जा सकता है।

उस समय लोग ज़्यादा रिस्क लेने की हालत में नहीं रहते। लोग सिर्फ़ पैसा उसी वक्त खर्च करते है, जब सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो। लोग निवेश करने से भी परहेज करते हैं ताकि उन पैसे का इस्तेमाल बुरे वक्त में कर सकें। इसलिए वे पैसा अपने पास रखते हैं। मौजूदा हालात भी कुछ ऐसी ही हैं।

जहा तक मंदी का सवाल है, तो अर्थव्यवस्था की मंदी के सभी कारणों का एक-दूसरे से ताल्लुक है। इनमें से कई कारण मौजूदा समय में हमारी अर्थव्यवस्था में मौजूद हैं। इसी वजह से लोगों के बीच आर्थिक मंदी का भय लगातार घर कर रहा है।

सरकार भी इसे रोकने के लिए तमाम प्रयास कर रही है। जब तक घरेलु मांग में बढ़ोतरी नहीं होगी, यह समस्या बनी रहेगी।

हालाँकि, कुछ कड़े प्रयासोंसे हम इस मंदी के दौर से बाहर निकल सकते है, लेकिन इसके लिए हमें घरेलू मांग को बढ़ाना होगा। सामान्य लोगों के हाथ में ज़्यादा पैसा देना होगा।

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